राजा जनक को राजमार्ग पर आना था, इसलिए उसे खाली कराया जा रहा था। सैनिक इस कार्य में तत्परता से जुटे थे। संयोगवश उस समय वहां से ऋषि अष्टावक्र गुजर रहे थे। जब सैनिकों ने उन्हें राजमार्ग से हटने को कहा तो उन्होंने साफ मना कर दिया। जब सैनिक उनसे इसके लिए प्रार्थना करने लगे तो वह बोले, 'मेरी बात राजा तक पहुंचा देना कि अपनी सुविधा के लिए वह यह बहुत गलत काम कर रहे हैं। राजा का कार्य प्रजा को सुख-सुविधा देना है कष्ट देना नहीं। एक विद्वान व न्यायप्रिय राजा होते हुए उन्हें यह कार्य शोभा नहीं देता।' उनकी यह बात सुनते ही उन्हें बंदी बना लिया गया और राजा जनक के सामने पेश किया गया।
जनक ने अष्टावक्र की पूरी बात सुनी। फिर उन्होंने राजदरबार में उपस्थित लोगों से कहा, 'हम ऋषिवर के साहस की प्रशंसा करते हैं। इन्होंने हमारे गलत कार्य की जानकारी देकर हम पर उपकार किया है। ये अपराधी नहीं हैं। बल्कि इन्होंने तो हमें सचाई की राह दिखाई है। यह एक साहसी सत्पुरुष हैं। इसलिए इन्हें दंड नहीं बल्कि पुरस्कार मिलना चाहिए। हम ऋषिवर के अनुसार अपने आचरण में सुधार लाने को तैयार हैं। भविष्य में हमसे ऐसी गलती दोबारा न हो इसलिए हम आज से इन्हें राजगुरु का पद सौंपते हैं। आगे से ये राजकाज से संबंधित प्रमुख कार्यों के बारे में हमें सलाह देंगे। मैं उम्मीद करता हूं कि भविष्य में भी राजगुरु केवल सचाई और न्याय पक्ष का ही समर्थन करेंगे।' इसके बाद उन्होंने अष्टावक्र को प्रणाम किया। अष्टावक्र ने उन्हें गले से लगा लिया ।
Friday, November 4, 2011
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