Friday, November 4, 2011

विनम्रता का पाठ

एक राजा बहुत अहंकारी था। एक दिन उसके मंत्री ने उसे बताया कि नगर में बुद्ध पधारे हैं, चलकर उनका स्वागत किया जाए। राजा ने कहा, 'मैं बुद्ध का स्वागत करने क्यों जाऊं? मैं राजा हूं और सभी मुझसे मिलने मेरे महल में आते है। बुद्ध को यदि मुझसे मिलना होगा, तो वह स्वयं मेरे महल में आएंगे।' राजा की बात सुनकर मंत्री बोला, 'आप राजा हैं इसलिए सभी आपसे मिलने आते है लेकिन संत पुरुष राजा से भी ऊपर होते है। चूंकि प्रजा के लिए भी वे श्रद्धा के पात्र होते है, इसलिए उनका आदर करके आप प्रजा के भी प्रियपात्र बनेंगे।'

राजा कुतर्की था। उसने पलटकर कहा, 'क्या मैं प्रजा का दास हूं कि जो वह करे और चाहे, वही मैं करूं? मैं राजा हूं, इसलिए मैं जो चाहूंगा, वही करूंगा।' मंत्री को राजा का व्यवहार उचित नहीं लगा। उसने अपना त्यागपत्र राजा को दे दिया और कहा, 'मैं आपकी सेवा में नहीं रह सकता। आप में तनिक भी बड़प्पन नहीं है।' राजा ने कहा, 'मैं अपने बड़प्पन के कारण ही बुद्ध के स्वागत हेतु नहीं जा रहा हूं।' मंत्री ने कहा, 'अपने घमंड को बड़प्पन मत समझिए। बुद्ध भी कभी महान सम्राट के पुत्र थे। उन्होंने राज्य का त्याग कर भिक्षु बनना स्वीकार किया। इसका अर्थ है कि राज्य के मुकाबले उनका त्याग अधिक बड़ा है। विनम्रता ही व्यक्ति को बड़ा बनाती है। इसके अभाव में व्यक्ति किसी लायक नहीं रह जाता। राजा बात का मर्म समझ गया और न केवल बुद्ध का स्वागत करने गया, बल्कि उनसे दीक्षा भी ग्रहण की।

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