महात्मा गांधी कांग्रेस के वर्धा अधिवेशन में भाग लेने साबरमती से वर्धा जा रहे थे। वह हमेशा की तरह रेल के तीसरे दर्जे में सफर कर रहे थे। उनके साथ कांग्रेसी कार्यकर्ताओं का एक समूह मौजूद था। गांधीजी उनसे बातें कर रहे थे। सभी कांग्रेसी कार्यकर्ता उनके सामने अपनी समस्याएं रख रहे थे और गांधीजी उनके समाधान सुझा रहे थे। इसी क्रम में कांग्रेस के एक कार्यकर्ता ने उनसे पूछा, 'बापू, मैं बहुत जल्दी क्रोधित हो जाता हूं। मैं इसके लिए कई बार बहुत ग्लानि भी महसूस करता हूं, परंतु इस पर मेरा कोई वश नहीं होता। क्या करूं समझ में नहीं आता। कृपया इससे छुटकारे का कोई रास्ता बताएं।'
गांधी जी पहले मुस्कराए फिर बोले, 'यह तो विचित्र बात है, तुम जरा अभी क्रोध कर दिखाओ।' जब कार्यकर्ता ने बताया कि वह अभी ऐसा नहीं कर सकता तो गांधीजी ने पूछा, 'भला क्यों?' कार्यकर्ता ने जवाब दिया, 'क्रोध तो अचानक आता है और फिर थोड़ी ही देर में चला भी जाता है। मैं चाहकर कुछ नहीं कर पाता।' गांधीजी ने उसे समझाते हुए कहा, 'इसका मतलब है कि क्रोध तुम्हारी प्रकृति में नहीं है। यह अगर तुम्हारे स्वभाव का अंग होता तो तुम आसानी से अभी क्रोध कर के दिखा सकते थे। अब तुम बताओ कि जो चीज तुम्हारी है ही नहीं उसे तुम खुद पर हावी क्यों होने देते हो?' कार्यकर्ता की आंखें खुल गईं। उसने अब कभी क्रोध न करने का फैसला किया। उसे जब भी गुस्सा आने को होता, गांधीजी की बात याद आ जाती और वह मुस्करा देता।
Friday, September 30, 2011
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