एक संत का संपूर्ण जीवन परमात्मा के चरणों में समर्पित था। उनका विचार था कि ईश्वर के निरंतर चिंतन से जीवन अमृतमय हो उठता है। संसार की सभी वस्तुएं नश्वर और क्षणभंगुर हैं। इनसे अनुरक्ति हमें कष्ट पहुंचाएगी। एक दिन संत एकांत में बैठकर साधना कर रहे थे कि उनके एक मित्र आए। मित्र उस दिन सोचकर आए थे कि वह संत की परीक्षा लेंगे। उन्होंने कुछ इस तरह की भाव-भंगिमा बनाई जैसे किसी बात को लेकर बहुत चिंताग्रस्त हों।
यह देखकर संत ने पूछा, 'आप बहुत चिंतित दिखाई दे रहे हैं। आखिर बात क्या है?' मित्र बोले, 'कुछ मत पूछो। हम लोगों के भाग्य में ऐसा बुरा दिन देखना लिखा था। क्या आप नहीं जानते कि आज रात को ही संपूर्ण संसार काल के गाल में समा जाएगा। प्रलय उपस्थित है।' मित्र की बात सुनते ही संत आनंद से झूम उठे। उन्होंने हंस कर कहा, 'मित्र यह तो आपने बहुत अच्छी बात बताई। इससे बढ़कर दूसरा सुखद समाचार और हो ही क्या सकता है। इस जीवन के विषय में कुछ भी तय करने वाले हम तो हैं नहीं। इसका रहना या नष्ट होना तो अदृश्य शक्ति के हाथ में है। फिर हम क्यों इसे लेकर चिंतित हों। मनुष्य इसलिए इतने कष्ट झेलता है क्योंकि वह अपने को ही नियंता मान बैठता है जबकि नियंता तो कोई और है। इसलिए जब तक जीवन है तब तक हम प्रसन्न होकर जीएं और सत्कर्म से दूसरों के जीवन को भी सुखी बनाने का प्रयास करें।' संत का मित्र अवाक उन्हें देखता रहा।
Friday, September 30, 2011
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