Friday, September 30, 2011

क्रोध का जाल

चंडकौशिक ने तप तो बहुत किया , पर वे अपने क्रोध पर नियंत्रण नहीं कर सके। यह दुर्गुण उनमें ज्यों का त्यों बना रहा। एक दिन उनके पैर से एक मेंढक कुचल कर मर गया। उनके साथी तपस्वी ने इस ओर उनका ध्यान आकर्षित किया तो चंडकौशिक आगबबूला हो गए। वे उस साथी को मारने दौड़े। क्रोधावेश में उन्हें बीच में खड़ा खंभा भी न दिखा। दौड़ते हुए उसी से टकरा गए। यही चोट उनकी मृत्यु का कारण बन गई।

उन्होंने उसी आश्रम में फिर जन्म लिया और साधना के द्वारा उसी के संचालक बने , फिर भी उनका क्रोध गया नहीं। एक बार कुछ भक्तजन उपहार और पूजा उपकरण लेकर उपस्थित हुए। भक्तों के व्यवहार और उपहार में उन्हें कुछ दोष दिखा तो वे क्रुद्ध होकर उन्हें मारने दौड़े। भक्त भागे , वे पीछे दौड़े। काफी देर तक दौड़ चलती रही। क्रोधावेश ने चंडकौशिक को एकदम पागल बना दिया था। रास्ते के व्यवधान भी उन्हें सूझ न पड़े। एक कुएं में उनका पैर पड़ा और उनकी मृत्यु हो गई। उनका जन्म तीसरी बार उसी आश्रम में हुआ।

इस बार वे भयंकर विषधर सर्प की देह लेकर जन्मे। जो कोई उधर से निकलता उसी का पीछा करते और जो पकड़ में आ जाता उसे डस कर उसका प्राण हरण कर लेते। एक बार भगवान महावीर उस आश्रम में पधारे , तो चंडकौशिक ने उन्हें भी डस लिया। दंश से भगवान का पैर क्षत - विक्षत हो गया , फिर भी करुणा की उस प्रतिमूर्ति के चेहरे पर तनिक भी क्रोध न आया।

वे मुस्कराते रहे और उस क्षुद्र प्राणी को अपनी अनंत क्षमा का पात्र बनाए रहे। आश्रमवासी उस दुष्ट जीव को मारने आए , तो उन्होंने रोक दिया। भगवान की दिव्य सत्ता को पहचानकर सर्प योनि में बैठे चंडकौशिक ने पश्चाताप व्यक्त किया। उन्हें भगवान के उपदेश सुनने के बाद मुक्ति मिली। फिर मानव देह में जन्म लेकर उन्होंने क्रोध शमन हेतु तप किया और सिद्ध पुरुष बने।

No comments:

Post a Comment