Friday, September 30, 2011
गुरु की सीख
बहुत पुरानी कथा है। महर्षि रमण रोज की तरह नदी किनारे साधना में लीन थे। उनका एक शिष्य उनके पास आया, जिसने कुछ ही दिनों पहले उनका शिष्यत्व हासिल किया था। वह राज परिवार से आता था। वह चाहता था कि अपने गुरु के प्रति श्रद्धा व्यक्त करे। लेकिन इसका उचित तरीका उसे समझ में नहीं आ रहा था। तभी उसे कुछ ख्याल आया। वह दो बड़े-बड़े मोती ले आया। उसने महर्षि के चरणों पर दोनों मोती रख दिए। महर्षि रमण ने आंखें खोलीं और एक मोती उठाया, फिर उसे उलट-पुलट कर देखने लगे। अभी वे मोती को देख ही रहे थे कि वह उनके हाथों से फिसल कर नदी में जा गिरा। महर्षि रमण के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया। वे फिर से ध्यान में लीन हो गए। शिष्य एक किनारे पर चुपचाप खड़ा यह सब देख रहा था। उधर महर्षि साधना में लीन हुए इधर शिष्य नदी में कूद पड़ा। शिष्य ने देर तक नदी में कई गोते लगाए किंतु उसे मोती नहीं मिला। अंतत: वह निराश हो गया और उसने गुरुजी को ध्यान से हटाकर पूछा, 'आपने देखा था कि वह मोती कहां पर गिरा था। आप बताएं तो मैं उसे खोज कर वापस आपको लाकर दूंगा।' गुरुजी ने दूसरा मोती उठाया और नदी में फेंकते हुए बोले, 'वहां।'। शिष्य अवाक होकर उनका मुंह देखता रह गया। अब शिष्य की आंखें खुल चुकी थीं और उसे अपने मोतियों का मोल मालूम हो चुका था। वह समझ गया कि यह भी एक पाठ है जो उसने सीख लिया है।
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