लाओत्से के पास एक युवा सैनिक, जिसने धर्मशास्त्रों का भी अध्ययन किया था, पहुंचा। उसने सुन रखा था कि लाओत्से के पास सभी समस्याओं का समाधान है। युवा सैनिक लाओत्से से जानना चाहता था कि स्वर्ग और नरक में क्या अंतर है? लाओत्से ने उसे अच्छी तरह देखा और पूछा, 'युवक तुम्हारा पेशा क्या है?' सैनिक ने अपने पेशे के बारे में बताया तो लाओत्से ने उसका उपहास करते हुए कहा, 'तुम और सैनिक! तुम्हें तो देखकर पता चलता है कि तुम बड़े डरपोक हो। तुम्हें तो बंदूक भी ठीक से उठाना नहीं आता होगा। तुमने तो शायद ही आज तक कोई वीरता का काम किया हो।' यह कहकर लाओत्से ने ठहाका लगाया।
इस पर सैनिक की भौंहें तन गई। उसका खून खौल उठा। उसने बंदूक निकाल ली और ज्यों ही घोड़ा दबाने को हुआ कि तभी लाओत्से बोल पड़े, 'बस यही है नरक का द्वार। तुम इससे आगे बढ़े नहीं कि नरक में पहुंच जाओगे।' इसके बाद लाओत्से ने विस्तार से क्रोध, उससे होने वाले नुकसान और क्रोध पर नियंत्रण की जरूरत पर चर्चा की। उन्होंने इस क्रम में उसे समझाते हुए कहा, 'स्वर्ग और नरक कहीं बाहर नहीं हैं। वे हमारे भीतर हैं। वे हमारी सोच और व्यवहार में प्रकट होते हैं।' लाओत्से की बात का मर्म समझते ही युवक की आंखें खुल गईं। वह अपने किए पर ग्लानि से भर गया और लाओत्से के चरणों में गिर पड़ा। लाओत्से ने कहा, 'लो, अब तुम्हारे लिए खुल गया स्वर्ग का द्वार। आगे बढ़ते ही तुम्हारा दुनिया की हर खुशियों से सामना होगा।'
Friday, September 30, 2011
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