Friday, November 4, 2011

राजा का सपना

एक राजा को शिकार का नशा था। वह राजकाज छोड़कर हर समय शिकार में लगा रहता था। वह जिससे मिलता उससे शिकार के किसी प्रसंग पर ही बात करता। एक बार जब वह शिकार करने पहुंचा तो एक हिरन उसके सामने आ खड़ा हुआ। राजा उसे देखकर चकित रह गया। तभी कोमल वाणी में हिरन ने कहा, 'राजन, आप प्रतिदिन वन में जाकर जीवों का शिकार करते हैं। कुछ जीव आपके हाथी-घोड़ों द्वारा कुचल दिए जाते हैं। मेरे शरीर के भीतर कस्तूरी का भंडार है। आपसे प्रार्थना है कि आप इस भंडार को ले लें और वन के प्राणियों का शिकार करना छोड़ दें।'

हिरन की बात सुन राजा विस्मय से बोला, 'क्या तुम उन्हें बचाने के लिए अपने प्राण देना चाहते हो? तुम जानते हो कस्तूरी पाने के लिए मुझे तुम्हारा वध करना होगा।' हिरन बोला, 'राजन, आप मुझे मारकर कस्तूरी का भंडार ले लीजिए, पर निरापराध जीवों को मारना छोड़ दीजिए।' राजा ने पुन: कहा, 'तुम्हारा शरीर बहुत सुंदर है। तुम्हारे भीतर कस्तूरी का भंडार है।' हिरन ने जवाब दिया, 'राजन यह शरीर तो नश्वर है। मैं दूसरों के प्राण बचाने के लिए मर जाऊं इससे अच्छी बात क्या हो सकती है।'

मृग की ज्ञान भरी वाणी ने राजा के मन में प्रकाश पैदा कर दिया। वह सोचने लगा, यह जानवर होकर दूसरों के लिए अपने प्राण दे रहा है और मैं मनुष्य होकर रोज जीवों को मारता हूं। धिक्कार है मुझ पर। तभी उसकी नींद टूट गई। इस सपने ने उसकी आंखें खोल दी थीं। उस दिन से राजा हिंसा छोड़कर सब पर दया करने लगा।

राजा का चुनाव

एक राजा था। वह बेहद न्यायप्रिय, दयालु और विनम्र था। उसके तीन बेटे थे। जब राजा बूढ़ा हुआ तो उसने किसी एक बेटे को राजगद्दी सौंपने का निर्णय किया। इसके लिए उसने तीनों की परीक्षा लेनी चाही। उसने तीनों राजकुमारों को अपने पास बुलाया और कहा, 'मैं आप तीनों को एक छोटा सा काम सौंप रहा हूं। उम्मीद करता हूं कि आप सभी इस काम को अपने सर्वश्रेष्ठ तरीके से करने की कोशिश करेंगे।'

राजा के कहने पर राजकुमारों ने हाथ जोड़कर कहा, 'पिताजी, आप आदेश दीजिए। हम अपनी ओर से कार्य को सर्वश्रेष्ठ तरीके से करने का भरपूर प्रयास करेंगे।' राजा ने प्रसन्न होकर उन तीनों को कुछ स्वर्ण मुद्राएं दीं और कहा कि इन मुद्राओं से कोई ऐसी चीज खरीद कर लाओ जिससे कि पूरा कमरा भर जाए और वह वस्तु काम में आने वाली भी हो। यह सुनकर तीनों राजकुमार स्वर्ण मुद्राएं लेकर अलग-अलग दिशाओं में चल पड़े। बड़ा राजकुमार बड़ी देर तक माथापच्ची करता रहा। उसने सोचा कि इसके लिए रूई उपयुक्त रहेगी। उसने उन स्वर्ण मुद्राओं से काफी सारी रूई खरीद कर कमरे में भर दी और सोचा कि इससे कमरा भी भर गया और रूई बाद में रजाई भरने के काम आ जाएगी। मंझले राजकुमार ने ढेर सारी घास से कमरा भर दिया।

उसे लगा कि बाद में घास गाय व घोड़ों के खाने के काम आ जाएगी। उधर छोटे राजकुमार ने तीन दीये खरीदे। पहला दीया उसने कमरे में जलाकर रख दिया। इससे पूरे कमरे में रोशनी भर गई। दूसरा दीया उसने अंधेरे चौराहे पर रख दिया जिससे वहां भी रोशनी हो गई और तीसरा दीया उसने अंधेरी चौखट पर रख दिया जिससे वह हिस्सा भी जगमगा उठा। बची हुई स्वर्ण मुद्राओं से उसने गरीबों को भोजन करा दिया। राजा ने तीनों राजकुमारों की वस्तुओं का निरीक्षण किया। अंत में छोटे राजकुमार के सूझबूझ भरे निर्णय को देखकर वह बेहद प्रभावित हुआ और उसे ही राजगद्दी सौंप दी।

विनम्रता का पाठ

एक राजा बहुत अहंकारी था। एक दिन उसके मंत्री ने उसे बताया कि नगर में बुद्ध पधारे हैं, चलकर उनका स्वागत किया जाए। राजा ने कहा, 'मैं बुद्ध का स्वागत करने क्यों जाऊं? मैं राजा हूं और सभी मुझसे मिलने मेरे महल में आते है। बुद्ध को यदि मुझसे मिलना होगा, तो वह स्वयं मेरे महल में आएंगे।' राजा की बात सुनकर मंत्री बोला, 'आप राजा हैं इसलिए सभी आपसे मिलने आते है लेकिन संत पुरुष राजा से भी ऊपर होते है। चूंकि प्रजा के लिए भी वे श्रद्धा के पात्र होते है, इसलिए उनका आदर करके आप प्रजा के भी प्रियपात्र बनेंगे।'

राजा कुतर्की था। उसने पलटकर कहा, 'क्या मैं प्रजा का दास हूं कि जो वह करे और चाहे, वही मैं करूं? मैं राजा हूं, इसलिए मैं जो चाहूंगा, वही करूंगा।' मंत्री को राजा का व्यवहार उचित नहीं लगा। उसने अपना त्यागपत्र राजा को दे दिया और कहा, 'मैं आपकी सेवा में नहीं रह सकता। आप में तनिक भी बड़प्पन नहीं है।' राजा ने कहा, 'मैं अपने बड़प्पन के कारण ही बुद्ध के स्वागत हेतु नहीं जा रहा हूं।' मंत्री ने कहा, 'अपने घमंड को बड़प्पन मत समझिए। बुद्ध भी कभी महान सम्राट के पुत्र थे। उन्होंने राज्य का त्याग कर भिक्षु बनना स्वीकार किया। इसका अर्थ है कि राज्य के मुकाबले उनका त्याग अधिक बड़ा है। विनम्रता ही व्यक्ति को बड़ा बनाती है। इसके अभाव में व्यक्ति किसी लायक नहीं रह जाता। राजा बात का मर्म समझ गया और न केवल बुद्ध का स्वागत करने गया, बल्कि उनसे दीक्षा भी ग्रहण की।

प्रतिभा का सम्मान

एक राजा को चित्रकारी का बहुत शौक था। वह अपने राज्य के योग्य चित्रकारों को समय-समय पर सम्मानित भी करता रहता था। एक बार राजा ने एक चित्रकला प्रतियोगिता का आयोजन रखा और दूर-दूर से मशहूर चित्रकारों को आमंत्रित किया। अनेक चित्रकार निर्धारित स्थल पर पहुंचने लगे। राजा ने सभी चित्रकारों को यथोचित सम्मान व स्थान देकर उन्हें ठहराया। एक चित्रकार बेहद गरीब सा दिख रहा था। वह फटे-पुराने मगर स्वच्छ वस्त्र पहने था। राजा ने उसे एक नजर देखा, फिर अनदेखा कर दिया। नियत समय पर प्रतियोगिता आरंभ हो गई। निर्णय करते समय तीन श्रेष्ठ चित्रों को चुना गया। अंत में निर्णायकों द्वारा उन तीन में से सर्वश्रेष्ठ चित्र को पुरस्कार देने की घोषणा की गई।

पुरस्कृत चित्र के चित्रकार का नाम पुकारे जाने पर वही गरीब चित्रकार मंच पर आया। उसे देखकर राजा ने पुरस्कार दिया और कुछ दिन के लिए राजमहल में ठहरने का निवेदन किया। कुछ दिन राजमहल में बिता कर जब चित्रकार लौटने लगा तो राजा ने उसे बहुमूल्य उपहार दिए और उससे बहुत ही विनम्रता से पेश आया। यह देखकर चित्रकार बोला, 'महाराज, जब मैं प्रारंभ में आपके पास आया था तो आपने मुझे देखकर भी अनदेखा कर दिया था, किंतु आज आप मेरे साथ बहुत ही सम्मानपूर्वक पेश आ रहे हैं। आखिर आपके व्यवहार में यह बदलाव क्यों?'

उसकी बात पर राजा मुस्कुराया फिर बोला, 'जब आप प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए आए थे तो आप मेरे लिए अनजान थे और साथ ही मैं आपकी प्रतिभा से भी अनजान था। तो आपकी वेश-भूषा और रूप -रंग के आधार पर ही अपना व्यवहार तय किया। अब मुझे आपकी प्रतिभा की भी जानकारी हो गई, इसलिए मेरे व्यवहार में आपके साथ आपकी प्रतिभा के प्रति भी सम्मान झलक रहा है। व्यक्ति की पहचान उसके काम से ही होती है। मेरे लिए उस समय भी आपकी आर्थिक स्थिति का कोई महत्व नहीं था और आज भी नहीं है। मैं आपकी प्रतिभा को तराशकर उसे चोटी पर पहुंचाने का प्रयास कर रहा हूं।' सुनकर चित्रकार संतुष्ट हो गया।

नेपोलियन की उदारता

नेपोलियन बोनापार्ट के आदेश से फ्रांसीसी तट पर अंग्रेजों के जहाज पकड़ लिए गए। जहाज पर सभी लोगों को बंदी बना लिया गया। उनमें एक 17 वर्ष का लड़का लेनार्ड भी था। उसे भी जेल में डाल दिया गया। कुछ दिनों बाद उसे समाचार मिला कि उसकी मां बहुत बीमार है। बचने की आशा नहीं थी। मां की आखिरी इच्छा लेनार्ड को देखने की थी। वह उसी रात मां को याद करता हुआ जेल से भाग निकला, लेकिन थोड़ी ही दूर जा पाया था कि पकड़ा गया। अगले दिन उसने दोबारा भागने का प्रयास किया, पर फिर से पकड़ लिया गया। इस बार उस पर बहुत सख्ती की गई, पांवों में बेड़ियां डाल दी गईं और नेपोलियन को शिकायत की गई।

लेनार्ड को नेपोलियन के सामने पेश किया गया। नेपोलियन ने लड़के से पूछा, 'ऐसी कौन सी वजह है कि तुम बार-बार यहां से भागने का दुस्साहस करते हो?' लेनार्ड ने रोते हुए कहा, 'मेरी मां मर रही है, मरने से पहले मुझे देखना चाहती है।' नेपोलियन ने जेलर को बुलाकर कहा, 'इस लड़के के घर जाने का इंतजाम करवाओ।' जेलर चौंक गया। नेपोलियन ने कहा, 'हैरान होने की बात नहीं है। इसके चेहरे से साफ लग रहा है कि इसे मां की ममता अपनी ओर खींच रही है। नेपोलियन इतना कठोर नहीं कि मां की ममता की कद्र न कर सके। इसे जाने दो।' नेपोलियन की उदारता देखकर वह लड़का उसके आगे नतमस्तक हो गया। नेपोलियन खुद मां के स्नेह के लिए हमेशा बेचैन रहा। यह उसी का परिणाम था।

सुख का सार

एक व्यक्ति अपने जीवन से बहुत परेशान था। हारकर वह एक संत के पास पहुंचा और उन्हें अपनी समस्या बताई। युवक की बात सुनकर संत ने एक कांच का जार मंगवाया और उसमें ढेर सारी खूबसूरत रंग-बिरंगी गेंदे भर दीं फिर युवक से पूछा, 'क्या यह जार भर गया है?' युवक बोला, 'हां महाराज, जार तो गेंदों से भर गया है।' युवक की बात सुनकर संत मुस्कराए और उन्होंने उस जार में छोटे-छोटे मोती भरने शुरू कर दिए। मोती जार में उस जगह पर समा गए जहां पर गेंदों के बीच रिक्त स्थान बचा हुआ था।

इसके बाद उन्होंने युवक से फिर पूछा, 'क्या अब जार भर गया है?' युवक जार को भलीभांति देखकर बोला, 'हां, अब तो इसमें कहीं भी जगह शेष नहीं है।' फिर संत ने जार में रेत डालना शुरू किया। रेत भी जार में मोती के साथ बचे रिक्त स्थान में समा गई। यह देखकर युवक बहुत हैरान हुआ। संत बोले, 'बेटा, इस कांच के जार को तुम अपना जीवन समझो। इसमें जो रंग-बिरंगी गेंदे हैं वो तुम्हारे जीवन का आधार यानी परिवार हैं। इसमें जो अनेक मोती हैं वे तुम्हारा रोजगार, आवास, शिक्षा आदि हैं। और जो रेत है वह जीवन में होने वाले झगड़े, मनमुटाव, तनाव, क्लेश आदि हैं। जीवन ऐसा ही होना चाहिए। अब यदि तुम जार में पहले रेत ही रेत भर दो, तो उसमें गेंदों व मोती के लिए जगह ही नहीं बचेगी। इसलिए पहले अपने जीवन को रंग-बिरंगी गेंदों व मोतियों से भरो।' युवक को सुख का सार समझ में आ गया।

संकल्प

एक बार नानक काशी के पास एक गांव में प्रवचन कर रहे थे। प्रवचन के बीच में उन्होंने कहा , सफलता के लिए प्रत्येक व्यक्ति को आशावादी होना चाहिए। प्रवचन खत्म होने के बाद एक भक्त ने पूछा , गुरु जी , क्या किसी चीज की आशा करना ही सफलता की कुंजी है। नानक ने कहा , नहीं , केवल आशा करने से कुछ नहीं मिलता। मगर आशा रखने वाला मनुष्य ही कर्मशील होता है। लेकिन उस आदमी की समझ में ये बातें नहीं आ रही थी। उसने कहा , गुरु जी , आप की गूढ़ बातें मेरी समझ में नहीं आ रही हैं। उस समय खेतों में गेहूं की कटाई हो रही थी। तेज गर्मी पड़ रही थी। नानक ने कहा , चलो मेरे साथ। तुम्हारे प्रश्न का जवाब वहीं दूंगा।

नानक उस आदमी को अपने साथ लेकर खेतों की तरफ चले गए। उन्होंने देखा कि एक खेत में दो भाई गेहूं की कटाई कर रहे थे। बड़ा भाई तेजी से कटाई करता आगे था दूसरा भाई पीछे था। नानक उस आदमी के साथ वहीं एक आम के पेड़ के नीचे बैठ गए। दोपहर हो गई थी। छोटा भाई बोला , भइया , आज तो पूरी कटाई हो नहीं पाएगी। अभी बहुत बाकी है , कल सुबह आकर काट लेंगे। बड़े भाई ने कहा , अब ज्यादा कहां बचा है। देखता नहीं , थोड़ा ही तो रह गया है। इन दो कतारों को काट लेंगे तो बाकी बारह कतारें रह जाएगी। इतना तो आराम से काट लेंगे। कल पर क्यों टालता है। बड़े भाई की बात सुन कर छोटा भाई जोश में आ गया और उसका हाथ भी तेजी से चलने लगा। थोड़ी देर में पूरा खेत कट गया। खेत कटने के बाद नानक वहां से चलने लगे तो भक्त ने कहा , मेरे प्रश्न का उत्तर तो शेष है। नानक ने कहा , तुम्हारे प्रश्न का जवाब तो उन दोनों भाइयों ने दे दिया जो खेत में गेहूं काट रहे थे। बड़ा भाई आशावादी था , तभी तो कटाई पूरी हुई। भक्त को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया।

राजा की प्रशंसा

लगभग डेढ़ हजार साल पहले बोधिधर्म नामक एक भिक्षु चीन की यात्रा पर गया। वहां का राजा वू बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति का था। उसने बहुत से मंदिर व मूर्तियां बनवाई हुई थीं। लोग राजा वू की प्रशंसा करते नहीं थकते थे। जब वू को पता चला कि भारत से कोई बौद्ध भिक्षु आए हैं, तो वह मिलने पहुंचा। उसने बोधिधर्म से पूछा, 'हे बोधि, मैंने इतने मंदिर बनवाए, मूर्तियां बनवाईं, धर्म के लिए अथाह पैसा बहाया, लेकिन मुझे यह सब करने से क्या मिलेगा?' राजा वू का प्रश्न सुनकर बोधिधर्म मुस्कुराते हुए बोले, 'कुछ भी नहीं।' सुन कर राजा चकित रह गया। उसने सोचा था कि उसे खूब वाहवाही मिलेगी। अभी तक जिन भिक्षुओं से भी उसकी बातचीत हुई थी, सभी ने उसकी मुक्त कंठ से सराहना की थी और उसकी दान भावना को सराहा था। वू ने बोधिधर्म का जवाब सुनकर पूछा, 'ऐसा क्यों? मैं धार्मिक व्यक्ति हूं। खुले हाथों से दान करता हूं। मंदिरों व धार्मिक कार्यों के लिए धन देने में किसी भी बाधा की परवाह नहीं करता। फिर आपने ऐसा क्यों कहा?'

उसकी बात पर बोधिधर्म बोले, 'इसलिए क्योंकि यह सब कुछ तुमने अपनी प्रशंसा व स्वार्थ के ध्येय से किया है, श्रद्धावश नहीं किया। श्रद्धावश किया होता तो मन में यह प्रश्न ही नहीं उठता कि मुझे क्या मिलेगा। राजा ने पूछा, तब मुझे क्या करना चाहिए? बोधिधर्म ने समझाया, अपने मन से पूछो कि क्या तुम अपनी प्रजा की प्रसन्नता के लिए व्याकुल रहते हो, उनकी मदद को आतुर रहते हो। भला ईश्वर को मंदिरों या मूर्तियों का क्या मोह? सच्चे मन से याद करो तो एक निर्धन-लाचार में भी नारायण के दर्शन हो सकते हैं। ईश्वर तो कण-कण में है, उसे रूप देने की क्या आवश्यकता? मात्र ईश्वर का गुणगान करने से ही तुम धार्मिक सिद्ध नहीं हो जाते। बोधिधर्म की बातें सुनकर राजा वू की आंखें खुल गईं और उसने मंदिर बनवाने की जगह सच्चे दिल से प्रजा की सेवा करनी आरंभ कर दी।

जीवन रूपी जागीर

तर्कशास्त्र के महान पंडित रामनाथ नवद्वीप के वन में एक गुरुकुल चलाते थे। उस समय कृष्णनगर में महाराज शिवचंद्र का शासन था। उन्होंने जब पं. रामनाथ की कीर्ति सुनी, तो उनसे मिलने गए। पंडित जी अपनी छोटी सी झोपड़ी में शांत भाव से विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे। महाराज को देख पं. रामनाथ जी ने उनका उचित स्वागत-सत्कार किया। कुशल-क्षेम पूछने के उपरांत कृष्णनगर नरेश ने उनसे पूछा, पंडित प्रवर, मैं आपकी क्या मदद करूं? रामनाथ जी ने कहा, राजन, भगवत्कृपा ने मेरे सारे अभाव मिटा दिए हैं, मैं संतुष्ट हूं।

राजा शिवचंद्र कहने लगे, विद्वत् वर, मैं घर के खर्च के बारे में पूछ रहा हूं। रामनाथ जी मुस्कराए। फिर शिवचंद्र की मन:स्थिति को भांपकर कहा, घर के खर्चों के बारे में तो गृहस्वामिनी ही अधिक जानती हैं। उन्हीं से पूछ लें। महाराज पंडित जी के घर गए और उनकी पत्नी से पूछा, माताजी घर खर्च के लिए कोई कमी तो नहीं है? इस पर उन परम साध्वी ने कहा, महाराज, भला सर्व समर्थ परमेश्वर के रहते उनके भक्तों को क्या कमी रह सकती है? फिर भी माताजी?

महाराज, कोई कमी नहीं है। पहनने को कपड़े हैं, सोने के लिए बिछौना है। पानी रखने के लिए मिट्टी का घड़ा है। खाने के लिए विद्यार्थी ले आते हैं। झोपड़ी के बाहर जमीन में साग-भाजी हो जाती है। और भला क्या जरूरत होगी? गुरुपत्नी बोलीं। शिवचंद्र ने कहा, फिर भी हम आपको कुछ गांवों की जागीर देना चाहते हैं। इसकी आय से गुरुकुल भी ठीक तरह से चल सकेगा और आपके जीवन में भी कोई अभाव नहीं रहेगा।

उत्तर में वह वृद्धा मुस्कराईं और कहने लगीं, राजन, प्रत्येक मनुष्य को परमात्मा ने जीवन रूपी जागीर पहले से ही दे रखी है। जो जीवन की इस जागीर को भली प्रकार संभालना सीख जाता है, उसे फिर किसी चीज का कोई अभाव नहीं रह जाता। नरेश का मस्तक श्रद्धा से झुक गया।

सोचो फिर बोलो

एक बूढ़ा व्यक्ति अपने पड़ोस में रहने वाले एक युवक को पसंद नहीं करता था। एक दिन गांव में चोरी हो गई। बूढ़े व्यक्ति ने कहना शुरू किया कि उसी युवक ने चोरी की होगी। धीरे-धीरे बात पूरे गांव में फैल गई। यहां तक कि गांव वालों ने उसे राजा के सिपाही से गिरफ्तार भी करवा दिया। परंतु जांच होने पर असली चोर कोई और निकला और वह युवक पूरी तरह निर्दोष पाया गया। लेकिन युवक जेल से छूट कर जब वापस आया, तब भी गांव के अनेक लोगों का दृष्टिकोण नहीं बदला। वे उससे कतराने लगे। इससे आहत हो कर युवक ने एक दिन उस बूढ़े आदमी को मार डालने की धमकी दे डाली। बूढ़ा इसकी शिकायत लेकर पंचायत में पहुंचा। सरपंच ने दोनों को बुलाकर पूरी बात सुनी। फिर बूढ़े से कहा, 'पहली गलती तो आपसे ही हुई है, दूसरी गलती युवक ने धमकी दे कर की। दोनों एक-दूसरे से क्षमा मांगें।'

युवक ने तो क्षमा मांग ली, परंतु बुजुर्ग झगड़ने लगा और बोला, पूरे गांव में इसके चोर होने की बात मैंने तो नहीं फैलाई।' इस पर सरपंच ने कहा कि वह एक कागज पर शब्दश: वह बात लिख दे जो उसने युवक के बारे में अपने पड़ोसियों से कही थी। बुजुर्ग ने वैसा ही किया। उसके बाद सरपंच ने उस कागज के कई टुकड़े कर दिए और बुजुर्ग से जाते समय राह में वे टुकड़े गिरा देने को कहा। फिर अगली सुबह सरपंच ने उनसे सारे टुकड़ों को वापस बटोर लाने को कहा। बुजुर्ग ने वही किया, परंतु टुकड़े काफी कम रह गए थे। कुछ टुकड़ों को हवा पता नहीं कहां उड़ा ले गई। तब सरपंच ने कहा, 'तुम्हारे मुंह से निकले हुए शब्द भी इसी प्रकार कहां से कहां तक जा सकते हैं, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इसीलिए असत्य या फिर जिस विषय में पूर्ण जानकारी न हो, उसके बारे में गलत राय देना भी सही नहीं है।' बुजुर्ग को अपनी गलती का अहसास हो गया।

पाप का गुरु

एक पंडित जी कई वर्षों तक काशी में शास्त्रों का गहन अध्ययन करने के बाद अपने गांव लौटे। गांव के एक किसान उनसे पूछा , पंडित जी , आप हमें यह बताइए कि पाप का गुरु कौन है। उसका प्रश्न सुन कर पंडित जी चकरा गए। उन्हें लगा कि अध्ययन अभी अधूरा है , इसलिए वे फिर काशी लौटे। मगर उन्हें किसान के सवाल का जवाब नहीं मिल रहा था। एक दिन उनकी मुलाकात एक वेश्या से हुई।

उसने पंडित जी से उनकी परेशानी का कारण पूछा तो पंडित जी ने उसे अपनी समस्या बता दी। वेश्या बोली , ' इसका तो बहुत आसान सा उत्तर है , लेकिन इसके लिए आप को कुछ दिन मेरे पड़ोस में रहना होगा। ' उसने अपने पास ही पंडित जी के रहने की अलग से व्यवस्था कर दी। पंडित जी किसी के हाथ का बना खाना नहीं खाते थे। इसलिए अपने हाथ से खाना बनाते और खाते। एक दिन वेश्या बोली , ' पंडित जी , आप को बहुत तकलीफ होती है खाना पकाने में। यहां देखने वाला तो कोई है नहीं। आप कहें तो मैं नहा - धो कर भोजन पका दिया करूं। आप सेवा का मौका देंगे तो मैं दक्षिणा में पांच स्वर्ण मुद्राएं भी प्रतिदिन दूंगी। '

स्वर्ण मुद्रा का नाम सुन कर पंडित जी को लोभ आ गया। उन्होंने कहा , ' ठीक है। ' पहले दिन उसने कई तरह के पकवान बना कर पंडित जी के सामने परोसा। पर ज्यों ही पंडित जी खाने को हुए कि उसने उनके सामने से थाली खींच ली। पंडित जी बोले , ' यह क्या मजाक है। ' उसने कहा , ' यह मजाक नहीं , आप के प्रश्न का उत्तर है। यहां आने के पहले आप किसी के हाथ का पानी भी नहीं पीते थे , मगर स्वर्ण मुद्राओं के लोभ में आपने मेरे हाथ का बना खाना खाना भी स्वीकार कर लिया। यह लोभ ही पाप का गुरु है। अगर कोई लोभ न करें तो वह कोई पाप करेगा ही नहीं। '

खुशी का राज

एक बार एक सज्जन पंडित जवाहरलाल नेहरू से मिलने आए और बोले, 'यदि आप इजाजत दें तो मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूं।' नेहरू जी ने सहर्ष इसकी अनुमति दे दी। उनकी सहमति मिलने पर उस सज्जन ने कहा, 'आप इस उम्र में भी एकदम ताजा गुलाब की तरह स्वस्थ और आकर्षक नजर आते हैं जबकि आपके ऊपर काम का अत्यधिक बोझ है। लेकिन आपको तो देखकर लगता है कि आप पर जैसे उम्र का कोई असर ही नहीं है।

अपनी प्रसन्नता का रहस्य हमें बताएं।' यह सुनकर नेहरू जी हंसकर बोले, 'अरे भाई, यह तो बहुत ही सहज है। कोई भी व्यक्ति यदि केवल तीन बातों पर ध्यान दे तो वह भी हमेशा ताजा गुलाब की तरह तरोताजा रह सकता है।' उस सज्जन ने पूछा, 'वे कौन सी तीन बातें हैं। हमें भी तो बताइए।' नेहरू जी ने कहा, 'सबसे पहली बात तो यह कि मैं बच्चों से घुल-मिल जाता हूं, उन्हें प्यार करता हूं। उनके भोलेपन और मासूमियत में मैं स्वयं को भी उन्हीं के जैसा महसूस करता हूं।

कभी-कभी बच्चों के साथ बच्चा बनकर खेलने में बहुत आनंद आता है और दिल को सुकून मिलता है। दूसरी बात, मैं कुदरत के सुंदर दृश्यों से गहरा संबंध रखता हूं। पहाड़, नदी, झरने, पक्षी, चांद, सितारे, हरे-भरे जंगल और हवाएं भी मेरी जिंदगी को गुलाब की तरह ताजा रखती हैं। प्रकृति से तो स्वास्थ्य का बहुत गहरा संबंध है। तीसरी बात, ज्यादातर लोग छोटी-छोटी किस्म की बातों में फंस कर तनावग्रस्त हो जाते हैं। मैं ऐसा नहीं करता।

जिंदगी को लेकर मेरी सोच और नजरिया बिल्कुल अलग है। जीवन है तो समस्याएं भी होंगी। इसलिए सबका मुकाबला धैर्य और शांति से करें। यह जान लीजिए कि समस्याएं हमेशा रहेंगी। अगर हम उनसे डरकर तनावग्रस्त हो जाएं तो हमारा जीवन संकटग्रस्त हो जाएगा।' नेहरू जी की बात से वह सज्जन संतुष्ट हो गए।

सफलता का नशा

किसी आश्रम में अनेक छात्र रहते थे। उनमें से एक छात्र को अपनी बुद्धि पर काफी अभिमान हो गया था। एक दिन गुरु ने उसे एक कथा सुनाई- घने जंगल में एक बकरी रहती थी। वह अपने को काफी चतुर मानती थी। उसके शरीर पर घने नर्म लंबे बाल थे, जिस कारण वह बहुत सुंदर दिखती थी। एक दिन वह घास चर रही थी। तभी कुछ शिकारियों की नजर उस पर पड़ी। उन्होंने उसका पीछा करना शुरू किया। बकरी भागती हुई जंगल में एक ऐसी जगह पहुंची, जहां अंगूर की घनी बेलें थीं। बकरी बेलों के पीछे जाकर छिप गई।

जब पीछा करते शिकारी पहुंचे, तो वे बकरी को देख न सके। बड़ी देर तक वहां ढूंढने के बाद वे आगे बढ़ गए। बकरी अपनी चतुराई पर बहुत प्रसन्न हुई। तभी उसका ध्यान अंगूर के कोमल पत्तों पर गया तो उसने अंगूर की बेल को ही चरना आरंभ कर दिया। थोड़ी देर में ही उसने सारी झाड़ी चट कर डाली। तभी शिकारी उसे ढूंढते वापस वहां आ पहुंचे ओर उन्होंने बकरी को देख लिया और थोड़ी देर पीछा करने के बाद उन्होंने उसका शिकार कर लिया। शिकारी आपस में कह रहे थे कि यदि बकरी ने वह झाड़ी साफ न की होती तो उसे पकड़ना नामुमकिन था। बकरी ने अपना आश्रय स्वयं नष्ट किया और वह शिकार हो गई। गुरु नेकथा यहीं समाप्त कर कहा, 'सफलता के नशे में मनुष्य अपना विवेक खो देता है और स्वयं को संकट में डाल लेता है। इसलिए अहंकार से बचना चाहिए।' शिष्य गुरु का आशय समझ गया।

अनोखा पुरस्कार

खलीफा उमर ईमानदारी और सादगी में यकीन करते थे। उनका हुक्म था कि चोगा बनाने के लिए शाही भंडार से सभी लोगों को एक समान कपड़ा दिया जाए। खुद उन्हें भी उससे अलग न रखा जाए। इस हुक्म का कड़ाई से पालन हो। एक बार वह भाषण दे रहे थे। भाषण के दौरान उन्होंने लोगों से पूछा, 'क्या आप लोग हमारे सभी हुक्म मानेंगे?' सभी लोगों ने हाथ उठा कर सहमति जाहिर की, मगर एक महिला ने हाथ नहीं उठाया। खलीफा ने उससे पूछा, 'क्या तुम मेरा हुक्म नहीं मानोगी?' उस महिला ने कहा, 'कभी नहीं।' खलीफा ने पूछा, 'क्यों?' उसने कहा, 'मैं आप का हुक्म कैसे मान सकती हूं, जब आप ने खुद ही अपने आदेश का उल्लंघन किया है।' खलीफा ने कहा, 'मैं कुछ समझा नहीं।'

महिला बोली, 'आप देख लीजिए। आप इतना लंबा चोगा पहने हुए है जबकि मेरे पति का चोगा घुटनों तक ही आता है। इससे जाहिर है कि आप ने शाही भंडार से अपने हिस्से से ज्यादा कपड़ा लिया है।' खलीफा की समझ में कुछ नहीं आया कि क्या कहें। तभी उनके बेटे ने खड़े होकर कहा, 'इसमें खलीफा दोषी नहीं हैं। उन्होंने ज्यादा कपड़ा नहीं लिया है। उनका चोगा बड़ा हो, इसलिए मैंने अपने हिस्से का थोड़ा कपड़ा उन्हें दिया है। देखिए मेरा चोगा सबसे छोटा है।' यह सुन कर महिला बोली, 'मुझसे गलती हुई। मुझे माफ किया जाए।' लेकिन वहां बैठे लोग कहने लगे कि खलीफा का अपमान करने वाले को सख्त से सख्त सजा दी जाए। उनकी बातें सुन खलीफा ने कहा, 'इस महिला ने कोई गलत काम नहीं किया है। यहां जितने लोग बैठे हैं, उनमें एक यही है जिसमें बेखौफ होकर अपनी बात कहने की हिम्मत है। यह महिला मुल्क की अमूल्य धरोहर है। मैं उसके साहस को सलाम करता हूं। आज ऐसे ही लोगों की जरूरत है।' महिला को सजा देने की बात करने वालों के सिर शर्म से झुक गए।

सौंदर्य की खोज

एक व्यक्ति हमेशा परेशान और उद्विग्न सा रहता था। उसकी परेशानी मानसिक थी। उसे सर्वोत्तम सौंदर्य की तलाश थी। एक दिन उसने बिना कुछ कहे-सुने चुपचाप घर छोड़ दिया। वह इधर-उधर भटकता रहता और अपने प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास करता रहता। इसी तरह बहुत समय बीत गया। एक दिन वह किसी जंगल से गुजर रहा था। वहां उसने एक तपस्वी को साधना करते पाया। वह वहीं ठहर गया। तपस्वी का ध्यान टूटने पर व्यक्ति ने उससे पूछा, 'सर्वोत्तम सौंदर्य क्या है?'

तपस्वी का उत्तर था, 'श्रद्धा ही सबसे सुंदर है, जो मिट्टी को भी भगवान बना देती है।' व्यक्ति संतुष्ट नहीं हुआ। यात्रा के अगले पड़ाव पर उसे एक गुणी सज्जन मिले। उसने अपना यह प्रश्न उनके समक्ष रखा तो वह बोले, 'प्रेम ही सर्वोत्तम सौंदर्य है। प्रेम न हो, तो जीवन की सुंदरता को कुरूपता में बदलते देर नहीं लगती।' व्यक्ति फिर भी संतुष्ट नहीं हुआ। आगे चलकर उसे युद्ध से लौटता सैनिक मिला।

सैनिक से पूछने पर उसका उत्तर था, 'शांति ही सर्वोत्तम सौंदर्य हैं क्योंकि संघर्ष की भयानक विनाशलीला मैं स्वयं देखकर आ रहा हूं।' व्यक्ति अब भी संतुष्ट नहीं था और निराश होकर घर लौट आया। घर के सभी लोग उसकी प्रतीक्षा में व्याकुल हो रहे थे। दुखी पत्नी, और आंसू बहाते अपने बच्चों से मिलकर उस व्यक्ति को अपार सुख का अनुभव हुआ। उसने महसूस किया कि आत्मीयता, स्नेह और श्रद्धा का मिला-जुला सौंदर्य तो घर में ही था और वह व्यर्थ इन्हें बाहर खोजने का प्रयास कर रहा था। घर अपने आप में सभी सौंदर्य को समेटे हुए है।

अनोखा फैसला

पुरानी कथा है। चीन में एक विचारक की काफी धूम थी। लोग उससे बेहद प्रभावित थे। राजा ने उसकी तारीफ सुन उसे न्यायाधीश बना दिया। उन्हीं दिनों नगर के सबसे धनवान सेठ के घर में चोरी हो गई। सब जानते थे कि सेठ ने इतनी अकूत संपत्ति बेईमानी व लोगों का शोषण करके इकट्ठा की है। किंतु चोरी तो चोरी थी इसलिए चोर को पकड़ने के लिए अभियान छेड़ा गया। चोर पकड़ा गया। उसने अपनी गलती स्वीकार कर ली। न्यायाधीश ने उसे चोरी के जुर्म में एक साल की सजा सुना दी।

चोर को सजा सुनाने के बाद न्यायाधीश ने सेठ की संपत्ति की जांच शुरू करवा दी लेकिन सेठ की दलील थी कि उसने सारी कमाई तिजारत से हासिल की है। उसने किसी का शोषण कर या गलत तरीके से धन अर्जित नहीं किया है। लेकिन न्यायाधीश ने इस बात को नहीं माना। उसने फैसला सुनाते हुए कहा, 'इस संपत्ति का कुछ हिस्सा चुराने वाले चोर को तो एक वर्ष की सजा दी गई है मगर इस संपत्ति के मालिक को दो वर्ष की सजा दी जाती है।' सेठ ने फैसले पर सवाल उठाया तो न्यायाधीश ने कहा, 'चोर ने तो चोरी की बात मान ली। उसके हृदय परिवर्तन की गुंजाइश है। लेकिन तुमने तो झूठ बोलकर सही रास्ते पर आने के सारे रास्ते बंद कर लिए हैं। चोर को सजा जरूर मिलनी चाहिए किंतु जब तक केवल चोरों को सजा मिलती रहेगी और आम आदमी का शोषण करने वाले खुलेआम घूमते रहेंगे तब तक चोरी बंद नहीं होगी। इसलिए तुम्हें सजा सुनाई गई है।'

सच्चा धर्मगुरु

गुरु अपने कुछ शिष्यों के साथ मेले में गए। उन्होंने देखा कि एक स्थान पर बैठकर कुछ बाबा माला फेर रहे थे। उन्होंने अपने सामने एक चादर भी फैला रखी थी जिस पर आते-जाते लोग सिक्के डाल जाते थे। साधु आंखें बंद करके बैठे रहते जैसे ध्यान में मगन हों। लेकिन बीच-बीच में वे थोड़ी देर के लिए आंखें खोलकर सामने बिछी चादर पर देख लेते कि उस पर कितने पैसे इकट्ठे हुए। उन्हें ऐसा करते देखकर गुरु हंस पड़े। उन्होंने शिष्यों को आगे चलने को कहा। आगे एक तपस्वी शीर्षासन कर रहा था। वहां भी भारी भीड़ जमा थी। उसे देखकर गुरु ने जोर का ठहाका लगाया। फिर वह अपने शिष्यों को लेकर आगे चल पड़े। आगे एक पंडितजी भागवत कथा सुना रहे थे। उनके सामने चेलों की जमात बैठी थी। बीच-बीच में जयकारे लगते और कीर्तन भी होने लगता। बार-बार कथा के अयोजक लोगों से श्रद्धा-भक्तिपूर्वक दान देने की अपील करते। कथा के कार्यकर्ता दानपात्र लेकर श्रोताओं के बीच में घूमने भी लगते और कथा सुनने वाले भक्त उस पात्र में कुछ न कुछ डालते। उन्हें देखकर गुरु फिर खिलखिलाकर हंसे।

उससे आगे एक कैंप में एक डॉक्टर रोगियों की सेवा में लगा था। गुरु कुछ देर वहां रुके रहे। उनकी आंखों में आंसू आ गए। आश्रम लौटने पर शिष्यों ने गुरु से पहले तीन स्थानों पर हंसने और चौथे स्थान पर रोने का कारण पूछा, तो गुरु ने उत्तर दिया, 'आज माला, आसन, प्राणायाम और भागवत कथा को ही धर्म समझकर अधिकतर लोग ढोंग कर रहे हैं। यह देखकर हंसी आ गई, जबकि भगवान का काम करने वाला बस एक डॉक्टर दिखा। यह देखकर दुख हुआ कि लोग धर्म के वास्तविक अर्थ को न जाने कब समझेंगे? सच्चा धर्म संसार की सेवा करना और उसे सुधारना है, जप तप करना नहीं।' गुरु की बातों में सभी शिष्यों को अपने प्रश्न के उत्तर के साथ-साथ धर्म के वास्तविक अर्थ को समझने का सूत्र भी मिला।

राजा की उदारता

राजा जनक को राजमार्ग पर आना था, इसलिए उसे खाली कराया जा रहा था। सैनिक इस कार्य में तत्परता से जुटे थे। संयोगवश उस समय वहां से ऋषि अष्टावक्र गुजर रहे थे। जब सैनिकों ने उन्हें राजमार्ग से हटने को कहा तो उन्होंने साफ मना कर दिया। जब सैनिक उनसे इसके लिए प्रार्थना करने लगे तो वह बोले, 'मेरी बात राजा तक पहुंचा देना कि अपनी सुविधा के लिए वह यह बहुत गलत काम कर रहे हैं। राजा का कार्य प्रजा को सुख-सुविधा देना है कष्ट देना नहीं। एक विद्वान व न्यायप्रिय राजा होते हुए उन्हें यह कार्य शोभा नहीं देता।' उनकी यह बात सुनते ही उन्हें बंदी बना लिया गया और राजा जनक के सामने पेश किया गया।

जनक ने अष्टावक्र की पूरी बात सुनी। फिर उन्होंने राजदरबार में उपस्थित लोगों से कहा, 'हम ऋषिवर के साहस की प्रशंसा करते हैं। इन्होंने हमारे गलत कार्य की जानकारी देकर हम पर उपकार किया है। ये अपराधी नहीं हैं। बल्कि इन्होंने तो हमें सचाई की राह दिखाई है। यह एक साहसी सत्पुरुष हैं। इसलिए इन्हें दंड नहीं बल्कि पुरस्कार मिलना चाहिए। हम ऋषिवर के अनुसार अपने आचरण में सुधार लाने को तैयार हैं। भविष्य में हमसे ऐसी गलती दोबारा न हो इसलिए हम आज से इन्हें राजगुरु का पद सौंपते हैं। आगे से ये राजकाज से संबंधित प्रमुख कार्यों के बारे में हमें सलाह देंगे। मैं उम्मीद करता हूं कि भविष्य में भी राजगुरु केवल सचाई और न्याय पक्ष का ही समर्थन करेंगे।' इसके बाद उन्होंने अष्टावक्र को प्रणाम किया। अष्टावक्र ने उन्हें गले से लगा लिया ।

प्रेम का बल

एक मां अपने बेटे की शरारतों से बहुत परेशान रहती थी। वह अपने बेटे को समझाने के लिए उस पर बहुत गुस्सा करती थी लेकिन बच्चा कोई बात नहीं समझता था। बच्चे की हरकतों से वह परेशान रहने लगी। एक दिन वह अपने बेटे को लेकर एक फकीर के पास गई। उसने फकीर से कहा, 'मेरा बेटा बहुत शरारतें करता है। यह उपद्रवी है, आप अगर इसे थोड़ा डरा दें तो हो सकता है, यह ठीक हो जाए।' फकीर ने जब यह सुना तो वह खड़ा होकर अपनी आंखें निकालकर इतनी जोर से चिल्लाया कि वह बच्चा तो भय के मारे भाग ही गया, उसकी मां भी घबराकर बेहोश हो गई। थोड़ी देर बाद बच्चा अपनी मां के पास लौटा। तब तक मां को भी होश आ गया था। मां ने होश में आने पर फकीर से कहा, 'आपने तो हद ही कर दी। मैंने आपसे इतना डराने के लिए तो नहीं कहा था।'

फकीर ने कहा, 'भय का कोई पैमाना नहीं होता। भय तो भय होता है। जब भय दिखाया जाता है तो पता ही नहीं चलता कि उसे कहां रोका जाए।' मां बोली, 'मैंने तो बच्चे को डराने के लिए कहा था, आपने तो मुझे भी डरा दिया।' फकीर बोला, 'भय जब प्रकट होता है तो ऐसा नहीं हो सकता कि वह एक को डराए, दूसरे को न डराए। तुम्हारी क्या बात करें, मैं तो स्वयं भयभीत हो गया था। देखो, जहां भय है वहां प्रेम पैदा नहीं हो सकता। इसलिए अब कभी भी अपने बच्चे को भयभीत करने की कोशिश न करना। सुधारने का काम डर से नहीं, प्रेम से होता है। प्रेम का बल डर के बल से बहुत अधिक होता है। बच्चे को सही रास्ते पर लाना है तो उसके प्रति स्नेह का व्यवहार करो।' उस दिन के बाद मां ने बच्चे पर कभी गुस्सा नहीं किया। अब वह उसे सभी बातें प्यार से समझाने लगी।

सोच का फर्क

जूतों की एक प्रसिद्ध कंपनी ने विदेश में अपना कारोबार फैलाने की योजना बनाई। इसके लिए मालिक ने अपनी कंपनी के एक सेल्समैन को पड़ोस के एक देश में जूतों के इस्तेमाल का जायजा लेने भेजा। सेल्समैन उस देश में जगह-जगह घूमा और उसने वहां हर चीज के बारे में विस्तार से जानकारी हासिल की। फिर वह वापस स्वदेश लौटकर आया और कंपनी के मालिक से बोला, 'मैंने वहां जगह-जगह घूम कर हर चीज का बारीकी से मुआयना किया और अंत में इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि वहां पर जूते की कंपनी खोलने के बारे में सोचना भी बेकार है क्योंकि वहां तो लोग जूते पहनते ही नहीं हैं। अब भला जो जूतों के बारे में जानते ही न हों वे उसकी खरीदारी कैसे करेंगे?'

मालिक ने इस पर कुछ नहीं कहा और दूसरे सेल्समैन को भी यही पता करने भेजा। दूसरा सेल्समैन तत्काल चला गया। उसने वहां से लौटकर अपने मालिक से कहा, 'बहुत ही अच्छी खबर है। वहां हमारा व्यापार बहुत अच्छी तरह जम जाएगा क्योंकि वहां के लोग जूते नहीं पहनते। बस एक बार हमें उन्हें जूतों का महत्व समझाना होगा। जब सभी लोग जूतों के महत्व को समझ जाएंगे तो वे इन्हें जरूर खरीदना चाहेंगे। ऐसे में हमारी कंपनी को वहां बहुत लाभ होगा। इसके बाद हमारी कंपनी वहां स्थायी रूप से स्थापित हो सकती है।' मालिक ने तुरंत वहां कंपनी खोली और उस सेल्समैन को वहां का मैनेजर बना दिया और कहा, 'दुनिया सकारात्मक सोच से आगे बढ़ती है। सकारात्मक सोच वाला ऊंचाइयों पर पहुंच जाता है।'

उदारता की जीत

राजा चंद्रसेन एक न्यायप्रिय शासक था। वह कभी किसी के साथ अन्याय नहीं होने देता था। एक बार पड़ोसी राजा ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। चंद्रसेन स्वयं पड़ोसी राजा से भिड़ गया। थोड़ी ही देर में चंद्रसेन ने उसे जमीन पर गिरा दिया और उसके सिर पर तलवार का वार करने ही वाला था कि दूसरे राजा के मुंह से कुछ अपशब्द निकल गए। अपशब्द सुनकर चंद्रसेन ने अपनी तलवार रोक ली और कुछ सोचते हुए उसे म्यान में रख लिया। वहां उपस्थित सभी सैनिक आश्चर्य में पड़ गए। वे चंद्रसेन से बोले, 'आपने अपना हाथ क्यों रोक लिया। इसे मार डालिए। इसे जिंदा छोड़ना ठीक नहीं होगा।'

सैनिकों की बात सुनकर चंद्रसेन ने कहा, 'मैं युद्ध अपने देश की रक्षा के लिए लड़ रहा हूं। यदि मैं इसी समय इसे मार देता हूं तो मुझे अफसोस नहीं होगा मगर इसने मुझे अपशब्द कहे, जिसके कारण मेरी लड़ाई हमारे राष्ट्र की न होकर व्यक्तिगत हो गई। देश रक्षा के लिए मैं अपने पूरे युद्ध कौशल से लड़ रहा था, किंतु व्यक्तिगत होने पर मैं गुस्से में आ गया। यदि मैं इसे मार देता तो मैं स्वार्थी कहलाता।' इतना कहकर चंद्रसेन ने दूसरे राजा को तलवार दी और युद्ध करने को कहा। लेकिन उस राजा ने लड़ने से इनकार कर दिया और उसके आगे सिर झुकाकर कहा, 'आपने अपने उच्च विचारों से मुझे जीत लिया है। अब आप चाहे तो मुझे मार दें।' चंद्रसेन ने उस पर वार नहीं किया और उसे क्षमा कर दिया। वह राजा सेना सहित लौट गया।

शांति की खोज

उन दिनों स्वामी रामतीर्थ अमेरिका गए हुए थे। वहां उनके प्रवचन की हर ओर धूम थी। अमेरिकी नागरिक उनसे अपनी परेशानियों के हल पूछने आते और खुशी-खुशी वहां से जाते थे। एक दिन एक अमेरिकी महिला उनके पास पहुंची और बोली, 'स्वामी जी, मेरा सब कुछ लुट गया। मुझे अब इस जीवन में कभी शांति नहीं मिल सकती। कृपया मेरे चित्त को शांत करने का उपाय बताएं।'

स्वामी जी ने कहा, 'माता, पहले आप अपने दुख का कारण तो बताएं।' महिला रोती हुई बोली, 'मेरा इकलौता पुत्र काल के गाल में समा गया है। अब मैं क्या करूं?' वह जोर-जोर से विलाप करने लगी। स्वामी जी ने उसे सांत्वना दी और अगले दिन उसके दुख को दूर करने का वादा किया। अगले दिन महिला फिर पहुंची। उसने कहा, 'स्वामी जी, आपने मुझसे वादा किया था कि आज आप मेरी समस्या का समाधान करेंगे।' स्वामी जी बोले, 'बिल्कुल, मैं अवश्य आपकी समस्या दूर करूंगा।'

इसके बाद उन्होंने एक छोटे से बालक को आवाज देकर बुलाया और उसका हाथ महिला के हाथ में सौंपते हुए कहा, 'यह लो अपना बेटा। आपको संतान चाहिए और इसे माता-पिता। आप इसके साथ बेटे जैसा व्यवहार करना, फिर देखना आपके सारे दु:ख-दर्द कैसे दूर हो जाते हैं।' उस महिला को इसकी आशा न थी। वह बोली, 'स्वामी जी, भला यह कैसे संभव है? मैं इसे अपना पुत्र कैसे मान लूं? पता नहीं यह कौन है? इसमें तो मेरा अंश मात्र भी नहीं है।'

उसकी बात सुनकर स्वामी जी गंभीर होकर बोले, 'ऐसे सोचेंगी तो न कभी आपका दु:ख-दर्द दूर होगा न ही जीवन में शांति मिल सकेगी। आत्मीयता का विस्तार करना सीखें। औरों में भी अपना रूप देखें। इस बच्चे में अपना बेटा देखें। जीवन जरूर बदलेगा। जीवन में सुख और शांति आएगी।' वह अमेरिकी महिला स्वामी रामतीर्थ की बातें सुनकर दंग रह गई। उसे अपनी गलती का अहसास हो गया। वह अनाथ बच्चे को प्रेम से अपने साथ ले गई ।

दिशाओं की पूजा

एक बार एक गृहस्थ व्यक्ति सभी दिशाओं को नमस्कार कर रहा था। उसकी इस गतिविधि को एक संत और उनके शिष्य देख रहे थे। एक शिष्य ने संत से पूछा , ' यह व्यक्ति दिशाओं की पूजा क्यों कर रहा है ?' संत बोले , ' चलो , उसी से पूछ लेते हैं। ' प्रश्न सुनकर वह व्यक्ति असमंजस में पड़ गया और बोला , ' यह तो मुझे भी नहीं पता। आप ही बताइए न। ' संत बोले , ' पूजा करने की दिशाएं भिन्न होती हैं माता - पिता और गृहपति पूर्व दिशा है। आचार्य दक्षिण , स्त्री - पुत्र - पुत्री पश्चिम और मित्र आदि उत्तर दिशा है।

सेवक और श्रमण - ब्राह्मणों के लिए भी दिशाएं निर्धारित हैं। इसलिए सभी दिशाओं का पूजन किया जाता है। इन सभी दिशाओं का सच्चे हृदय से पूजन करने से लाभ होता है । ' संत का जवाब सुनकर वह व्यक्ति बोला , ' और तो सब ठीक है महाराज। मैं सबकी पूजा सच्चे हृदय से कर सकता हूं , परंतु सेवकों की पूजा कैसे की जा सकती है ? सेवक तो स्वयं मेरी सेवा करते हैं । ' यह सुनकर संत बोले , ' पूजा का अर्थ केवल हाथ जोड़ना अथवा सिर झुकाना नहीं है , सेवकों की सेवा का स्वरूप उनके प्रति स्नेह और वात्सल्य दर्शाने में है , उनकी हर संभव मदद करने में है और उनसे प्रेम से बात करने में है । '

यह सुनकर वह व्यक्ति बोला , ' आपने मुझे सही ज्ञान कराया है। अभी तक तो मैं मात्र हाथ जोड़कर सिर नवाने को ही पूजन समझता था किंतु आज आपने मुझे असली दिशा पूजन की विधि समझाई है और मैं भविष्य में इसी तरह से पूजन कर अपने जीवन को सफल बनाऊंगा। '

Thursday, November 3, 2011

रेत का पुल

भारद्वाज ऋषि के पुत्र यवक्रीत को विद्यार्जन में रुचि नहीं थी। इसलिए वह अध्ययन से दूर रहे पर बाद में उन्हें अहसास हुआ कि अशिक्षित होने और शास्त्रों का ज्ञान नहीं होने के कारण समाज में उनका सम्मान नहीं होता। लेकिन चूंकि उनकी उम्र ज्यादा हो चुकी थी, विधिवत शिक्षा ग्रहण करने का समय निकल चुका था, इसलिए उन्होंने सोचा कि क्यों न देवताओं की तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया जाए और वरदान मांग कर सारी विद्याएं प्राप्त कर ली जाएं। वह गंगा किनारे भगवान को खुश करने के लिए ध्यानमग्न हो गए। भगवान इंद्र उनके मन की बात समझ गए।

एक दिन वह साधु का वेश धारण करके वहां आए और दोनों हाथों से रेत उठा कर पानी में डालने लगे। थोड़ी देर में यवक्रीत की आंखें खुलीं। उन्होंने साधु को पानी में बालू डालते देख कर पूछा, 'आप यह क्या कर रहे हैं?' साधु ने कहा, 'गंगा के ऊपर पुल बना रहा हूं।' यवक्रीत ने कहा, 'आप तो बड़े ज्ञानी लगते हैं लेकिन यह मूर्खता वाला काम क्यों कर रहे हैं। कहीं बालू से पुल बनता है। बालू तो पानी में गिरते ही उसमें घुल जाता है।' यह सुन कर साधु ने कहा, 'यदि बिना पढ़े-लिखे ज्ञान मिल सकता है तो बालू से पुल क्यों नहीं बन सकता। अगर तपस्या करने से ही ज्ञान मिलता तो फिर पढ़ने- लिखने का कष्ट कौन उठाता। सभी आप की तरह तपस्या करके भगवान को खुश करके ज्ञान का वर मांग लेते।' यह सुन कर यवक्रीत सोच में पड़ गए।

उन्होंने कहा, 'पर इतनी ज्यादा उम्र में पढ़ाई कौन करता है।' साधु ने कहा, 'वत्स, ज्ञान प्राप्त करने की कोई उम्र सीमा नहीं होती। यदि आप संकल्प कर लोगे तो अब भी अपने पिता के समान महान ज्ञानी बन सकते हो।' यवक्रीत ने कहा, 'आप ठीक कह रहे हैं। अब मैं अध्ययन करूंगा।' बाद में यवक्रीत महान विद्वान बने और तपोदत्त के नाम से जाने गए।

दो थैले

हमारे गांवों में अक्सर एक कथा सुनने को मिलती है। ईश्वर ने जब मनुष्य की रचना की तो उसे अपनी अन्य सभी कृतियों से श्रेष्ठ बनाया। सुघड़ और सुंदर बनाने के साथ उसे बुद्धि भी दी। जब मनुष्य इस पृथ्वी पर पहुंचा तो ब्रह्मा ने उससे पूछा, अब यहां आकर तुम क्या चाहते हो? मनुष्य ने कहा, प्रभु, मैं तीन बातें चाहता हूं। एक, मैं सदा प्रसन्न रहूं। दूसरा, सभी मेरा सम्मान करें। और तीसरा, मैं सदा उन्नति के पथ पर चलता रहूं।

मनुष्य की ये इच्छाएं जान कर ब्रह्मा जी ने उसे दो थैले दिए और कहा, एक थैले में तुम अपनी सभी कमजोरियां डाल दो, और दूसरे थैले में दूसरे लोगों की कमियां डालते रहो। साथ ही यह भी कहा कि इन दोनों थैलों को हमेशा अपने कंधों पर ले कर चलना। लेकिन हां, एक बात का ध्यान और रखना कि जिस थैले में तुम्हारी अपनी खामियां हैं, उसे तो अगली तरफ रखना। और जिस थैले में दूसरों की कमजोरियां रखी हैं, उन्हें पीछे की तरफ यानी पीठ पर रखना। समय-समय पर सामने वाला थैला खोलकर निरीक्षण भी करते रहना, ताकि अपनी त्रुटियां दूर कर सको। परंतु दूसरे लोगों के अवगुणों का थैला, जो पीठ पर डाला होगा, उसे कभी न खोलना और न ही दूसरों के ऐब देखना या कहना। यदि तुम इस परामर्श पर ठीक से आचरण करोगे, तो तुम्हारी तीनों इच्छाएं पूरी होंगी- तुम सदा प्रसन्न रहोगे, सबसे सम्मान पाओगे और सदा उन्नति करोगे।

मनुष्य ने ब्रह्मा जी को नमस्कार किया और अपने दुनियावी कामकाज में लग गया। लेकिन इस बीच उसे थैलों की पहचान भूल गई। जो थैला पीछे डालना था उसे तो आगे टांग लिया और जिस थैले को आगे रख कर देखते रहने को कहा था, वह पीछे की तरफ कर दिया। तब से मनुष्य दूसरों के अवगुण ही देखता है, अपनी कमजोरियों पर ध्यान नहीं देता। इसी वजह से उसेफल भी उलटा ही मिलता है।

भूल का सुधार

बुद्ध सारनाथ के एकांत जंगल में कुछ शिष्यों के साथ बैठे थे। तभी कहीं से शोर सुनाई पड़ा। बुद्ध ने आनंद को यह पता लगाने को कहा कि बात क्या है। आनंद ने थोड़ी देर बाद आकर बताया कि कुछ भिक्षु पेड़ के नीचे बैठकर बातचीत और हंसी मजाक कर रहे हैं। बुद्ध क्रोध में उन भिक्षुओं के पास जाकर बोले, 'क्या आप लोगों को नहीं मालूम कि भिक्षुओं को शांत रहना चाहिए। आप लोगों ने भिक्षु जीवन की मर्यादा का उल्लंघन किया है इसलिए आप इसी समय संघ छोड़ दें।' वे भिक्षु नए थे और हाल ही में संघ में आए थे। उन्होंने बुद्ध से क्षमा मांगी मगर बुद्ध ने उन्हें माफ नहीं किया।

सभी भिक्षु वहां से निकल पड़े। रास्ते में उन्हें कुछ संत मिले जो बुद्ध से मिलने आ रहे थे। जब उन्हें सारा किस्सा मालूम हुआ तो वे असमंजस में पड़ गए। एक संत ने बुद्ध से कहा, 'इन्हें निकालने के पहले क्या आप ने यह सोचा कि यहां से जाने के बाद ये लोग क्या करेंगे। किस रास्ते पर जाएंगे। यदि इन्होंने गलत रास्ता पकड़ लिया तो किस पर दोष जाएगा। बौद्घ धर्म तो गलत रास्ते पर चलने वालों को सही मार्ग दिखाता है। इन्हें सुधरने का एक मौका तो मिलना ही चाहिए।' बुद्ध को अपनी गलती का अहसास हो गया। वह सभी भिक्षुओं से अपनी भूल के लिए माफी मांगने लगे। बुद्ध को ऐसा करते देख कर भिक्षु सकते में आ गए। एक ने कहा, 'प्रभु आप से कोई भूल नहीं हुई। गलती तो हमारी थी।' बुद्ध ने कहा, 'नहीं, आपकी गलती नहीं थी। गलत मैं था। गलती किसी से भी हो सकती है। अपनी भूल को स्वीकार करना ही भूल का सुधार है।'

समझदार न्यायाधीश

पेशवा माधवराव के शासन में लोगों से बेगार लेकर सरकारी कार्य करवाए जाते थे, जिन्हें श्रमदान कहा जाता था। लोगों से प्राय: जबरदस्ती काम करवाए जाते थे। राम शास्त्री उस समय प्रधान न्यायाधीश थे। एक दिन वह कहीं जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने देखा कि एक सिपाही किसी नौजवान किसान को पीट रहा था। उसकी मां रो-रोकर उसे छोड़ देने की प्रार्थना कर रही थी। वह किसान अपनी मां का इकलौता बेटा था और अपने खेत का काम कर रहा था। यदि वह बेगार निपटाने जाता तो उसके खेत का काम अधूरा रह जाता। यह दृश्य देखकर राम शास्त्री सिपाही के पास गए और नवयुवक को छोड़ देने को कहा। सिपाही ने प्रधान न्यायाधीश की बात नहीं मानी बल्कि उन्हें सरकारी कार्य में बाधा डालने के आरोप में पेशवा के सम्मुख पेश कर दिया।

उन्हें देखकर पेशवा माधवराव बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने कहा कि प्रधान न्यायाधीश भी सरकारी कार्य में बाधा डालने के आरोप में दंड का हकदार है। यह सुनकर राम शास्त्री बेहद विनम्र स्वर में पेशवा से बोले, 'सरकार, आप मुझे जो भी दंड देंगे वह स्वीकार है। मगर इन दिनों खेतों में काम बहुत है। अगर ये मजदूर अपना काम छोड़कर आपकी सेवा में आते हैं तो इनके खेत बेकार पड़े रहेंगे। इससे इनका तो नुकसान होगा ही, साथ ही राज्य को भी हानि होगी। इनसे उस समय काम लेना चाहिए जब इनके पास खेतों का कोई विशेष कार्य न हो।' फिर वह पकड़े गए किसानों की ओर देखकर बोले, 'बोलो, तुम क्या चाहते हो?' इस पर सभी किसान एक स्वर में बोले, 'यही, जो आपने कहा। हमें अपने राजा के लिए काम करने से इनकार नहीं है पर समय उचित होना चाहिए।'

किसानों की बात सुनकर पेशवा को अपना निर्णय बदलना पड़ा। उन्होंने सबको सकुशल घर लौट जाने की आज्ञा दे दी। साथ ही बेगार की प्रथा को भी समाप्त कर दिया। इसके लिए किसानों ने राम शास्त्री के प्रति आभार प्रकट किया।

ध्यान का अर्थ

एक ऋषि जंगल में अपने शिष्यों के साथ रहते थे। उनके रहने के लिए झोपडि़यां बनी थीं। उन्हीं झोपडि़यों के बीच में झाड़-फूस का एक कक्ष भी था। पूरा माहौल देखकर लगता था मानो वह जगह कोई विद्यापीठ हो। राजा को जब ऋषि के इस विद्यापीठ के बारे में पता लगा तो उसके मन में उस स्थान को देखने की उत्सुकता जागी। एक दिन वह जंगल जा पहुंचा।

ऋषि ने राजा का स्वागत किया और जैसी कि राजा की इच्छा थी उसे वहां घुमाना शुरू किया। वह राजा को एक-एक झोपड़ी के पास ले गए और बताने लगे कि उनके शिष्य कहां रहते हैं। कहां स्नान करते हैं, कहां खाना खाते हैं। लेकिन राजा की उत्सुकता तो उन झोपडि़यों के बीच अलग से दिखाई देने वाले कक्ष में थी।

राजा ने ऋषि से कई बार पूछा कि वह इस कक्ष में क्या करते हैं, लेकिन ऋषि ने एक बार भी उसके बारे में कुछ नहीं कहा। आखिरकार राजा झुंझला गया। उसने जोर से कहा, 'आपने मुझे हर जगह घुमाया। हरेक स्थान के बारे में बताया पर इस कक्ष को न तो आपने दिखाया और न ही मेरे बार-बार पूछने पर भी यह बताया कि आप और आपके शिष्य इसमें क्या करते हैं?' ऋषि बोले, 'राजन हम इस कक्ष में कुछ नहीं करते हैं? हम यहां मात्र ध्यान में जाते हैं। ध्यान कुछ करना नहीं है। अगर मैं आपके पूछने पर यह उत्तर दूं कि हम यहां ध्यान करते हैं तो यह गलत होगा। क्योंकि ध्यान कोई क्रिया नहीं हैं। इसलिए जब भी आपने इस कक्ष के बारे में पूछा मुझे चुप रहना पड़ा। ध्यान तो वह स्थिति है जब ध्यानी कुछ भी नहीं करता। उसका शरीर भी शांत होता है और मन भी।' राजा ध्यान का अर्थ समझ गया।

सफलता का मंत्र

एक बार गुरु नानक किसी गांव में प्रवचन कर रहे थे। उन्होंने कहा, 'सफलता के लिए प्रत्येक व्यक्ति को आशावादी होना चाहिए।' प्रवचन खत्म होने के बाद एक भक्त ने पूछा, 'गुरु जी, क्या किसी चीज की आशा करना ही सफलता की कुंजी है?' नानक ने कहा, 'नहीं, केवल आशा करने से कुछ नहीं मिलता। मगर आशा रखने वाला मनुष्य ही कर्मशील होता है।' उस व्यक्ति ने कहा, 'गुरु जी, आप की गूढ़ बातें मेरी समझ में नहीं आ रही हैं।'

उस समय खेतों में गेहूं की कटाई हो रही थी। नानक ने कहा, 'चलो मेरे साथ। तुम्हारे प्रश्न का उत्तर वहीं दूंगा।' नानक उस व्यक्ति को अपने साथ लेकर खेतों की तरफ चले गए। उन्होंने देखा कि एक खेत में दो भाई गेहूं की कटाई कर रहे थे। बड़ा भाई तेजी से कटाई करता आगे था दूसरा भाई पीछे। नानक उस व्यक्ति के साथ वहीं एक आम के पेड़ के नीचे बैठ गए। दोपहर का समय था। छोटा भाई बोला, 'भइया, आज तो पूरी कटाई हो नहीं पाएगी।

अभी तो कटने को बहुत बाकी है। क्यों न कल सुबह आकर काट लेंगे।' बड़े भाई ने कहा, 'अब ज्यादा कहां बचा है। देखता नहीं, थोड़ा ही तो रह गया है। जब हम इन दो कतारों को काट लेंगे तो बाकी बारह कतारें रह जाएंगी। इतना तो आराम से काट लेंगे। कल पर क्यों टालता है।' बड़े भाई की बात सुन कर छोटा भाई जोश में आ गया और उसका हाथ भी तेजी से चलने लगा। नानक ने उस व्यक्ति से कहा, 'तुम्हारे प्रश्न का उत्तर सामने है।

छोटा भाई पहले निराश होकर काम बंद करने को कह रहा था लेकिन बड़े भाई ने उसमें जोश जगाया तो छोटा भाई भी तेजी से कटाई करने लगा। इसे कहते है आशावाद। बड़ा भाई आशावादी था। आशावाद का दूसरा नाम संकल्प है। मन में आशा जगेगी तभी संकल्प करोगे और संकल्प में ही मनुष्य की ताकत छुपी हुई है।'